कांच के टुकडे कुछ कहने लगे
कांच के टुकडे कुछ कहने लगे जीवन के मिथ्या अंहकार को दिखाते हुए
कांच के टुकडे कुछ कहने लगे जीवन के मिथ्या अंहकार को दिखाते हुए
केसर घुल गई गारा में एक सुन्दर मकान बना कर उसमें कांच
मै आखिर जंगल का बेजुबान दरकत ही था बदलती ऋतुओका सामना सदा मै ही करता
बदलता पुष्कर अनिल सर जोगणिया धाम चैरिटेबल ट्रस्ट की तरफ से एक सो एक गरीब
# post 1770 मिथ्या की परछाई में यथार्थ की संध्या- – – यथार्थ
मानव अपनी सुरक्षा के लिए कई जतन करता है। भोतिक शक्ति का साम्राज्य
हर नया छल, हर नये कल को, तबाह करता है नीयत अपने स्वर अलापती
आत्मा (प्राणवायु ऊर्जा ) का प्रबोधन और शयन काल आत्मा का प्रबोधन और
बंजारा बालद मै सामान रख कर बैलो को हाकता जा रहा था और और अपनी
प्रकृति का शक्ति परिवर्तन शरद ऋतु में शरद ऋतु का नव चन्द्रमा अपनी अपनी