कांच के टुकडे कुछ कहने लगे
कांच के टुकडे कुछ कहने लगे जीवन के मिथ्या अंहकार को दिखाते हुए
कांच के टुकडे कुछ कहने लगे जीवन के मिथ्या अंहकार को दिखाते हुए
केसर घुल गई गारा में एक सुन्दर मकान बना कर उसमें कांच
मै आखिर जंगल का बेजुबान दरकत ही था बदलती ऋतुओका सामना सदा मै ही करता
बदलता पुष्कर अनिल सर जोगणिया धाम चैरिटेबल ट्रस्ट की तरफ से एक सो एक गरीब