आत्मा (प्राणवायु ऊर्जा ) का प्रबोधन और शयन काल

आत्मा का प्रबोधन
और शयन काल
शरीर में बैठी प्राण वायु रूपी ऊर्जा जिसे आत्मा कहा जाता है वह शयन नहीं करतीं हैं वरन शरीर थक कर शयन भी करता है तो भी उसे वह जाग्रत रखतीं हैं। यही आत्मा जब शरीर से निकल जातीं हैं तो शरीर को सदा के लिए शयन काल में छोड़ उसकी मृत्यु करवा देतीं हैं। वास्तव मे यही आत्मा जमीनी देव हैं और उसकी आढ में मन अपने स्वभाव के अनुसार सांसारिक विषयों का आनंद लेता हुआ हर सत्ताओ का संचालन अपनें हीं अनुसार कर एक इतिहास छोड़ जाता है।
मन और शरीर अपनी संस्कृति बना दुनिया को सूर्य के उतरायन ओर दक्षिणायन की तरह देव शयन ओर देव प्रबोधन काल के अनुसार व्यवहार करता है पर आत्मा रूपी सदा जाग्रत रहने वाले देव की दीपावली रोज़ नहीं मनाता ओर ना ही इस कारण वह प्रकृति के न्याय सिद्धांतो से डरता है। केवल वह शरीर को मन का बादशाह बनाने के विजयी खेल में सदा लगा रहता है और यही क्रम उसे सदा जाग्रत नहीं रहने देते हैं और पूर्ण शयन काल की ओर ले जाते हैं। उसकी आत्मा का फिर देव प्रबोधन नहीं होता।
हिन्दु धार्मिक मान्यताओं के अनुसार आषाढ़ मास की शुक्ल एकादशी से कार्तिक मास की शुक्ल एकादशी तक का समय देवशयन काल माना जाता है । अर्थात ऐसी मान्यता है कि सारे देवता सो जाते है तथा हर तरह के मांगलिक कार्यों पर रोक लग जातीं हैं। कार्तिक मास की शुक्ल एकादशी को विष्णु जी निद्रा से जाग जाते हैं तथा सभी मांगलिक कार्य पुनः प्रारंभ हो जाते हैं।
आदि ऋषियों ने इस पूरे चतुर्थ मास में एक स्थान पर बैठ कर जप तप के निर्देश दिए तथा वर्षाकाल मे होने वालीं बीमारियों से बचने के लिए तथा वर्षा से सभी अव्यवस्था फ़ैल जाने के कारण इन चार माह में सभी मांगलिक कार्य रोक दियें जाने के निर्देश दिए। यह वर्षा ऋतु का चतुर्थ मास देव शयन काल कहलाया। वास्तव में ये ही जमीनी हकीकत है।
प्रकृति ने अपना प्रबन्धन सुव्यवस्थित करते हुए जीव ओर जगत को मोसम के अनुसार ही व्यवहार करने के लिए प्रेरित किया है। सूर्य के दैनिक चालन से दिन रात बनायी तो वही सूर्य की वार्षिक गति से ऋतु निर्माण कर उसी अनुसार कार्य करनें के संदेश दिये।
वर्षा ऋतु के साथ चार महिनों में अपनें विशेष प्रबन्धन मे प्रकृति ने आन्तरिक ऊर्जाओ को बढा ,सृजन करनें के सूत्र को बता सर्वत्र वर्षा करा गर्मी की ऋतु से तपती धरती को जल से परिपूर्ण कर पृथ्वी को उपजाऊ बना वनस्पतियों तथा खाद्यान्नों को उतपन्न किया ।
वर्षा ऋतु के काल में यातायात खानपान उद्योग धंधे सभी प्रभावित होते हैं इस कारण इन चार माह में सभी कार्य मे अवरोध पैदा होने से सभी मांगलिक कार्य रोक दियें जाते है तथा उसके बाद सभी कार्यो को सुचारु रूप से किया जा सकता है। अतः प्रकृति ने सभी कार्यो के लिए वर्षा काल का अवरोध खत्म कर दिया । यही शुभ कार्यो के जागरण का काल है। देव अर्थात शुभ करनें वालीं शक्ति अतः यही देव ऊठनी एकादशी है और शुभ कार्यो के प्रारंभ का काल है।
संत जन कहतें है कि हे मानव प्रकृति का हर काल जाग्रत रहता है और हर काल में उसकी क्रिया अपना काम करती है । प्रकृति स्वयं शक्ति है और उसके सो जाने से प्रलय के अतिरिक्त और कुछ भी नही होगा। ये सदैव जाग्रत रह कर अपना कार्य करतीं रहतीं हैं। चाहें कोई सा भी ऋतु काल क्यो ना हो।
इसलिए हे मानव शरीर में बैठी आत्मा जो प्राण वायु रूपी ऊर्जा कहलाती हैं उस की ओर देख जो सदा शरीर को जाग्रत ही रखतीं हैं और सदा प्राण रूपी दीपक जला शरीर को रोज दीवाली मनवाती है ओर स्वयं सदा जाग्रत रह कर मानव को जिन्दा रखती है अन्यथा उसका शयन काल मृत्यु बन कर व्यकति का अस्तित्व खत्म कर देता है। इसलिए तू भले ही शरीर आराम के लियें शयन कर लेकिन ऋतुओ के गुण धर्मों का पालन कर ओर आत्मा रूपी देव को जगाये रख।